शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

ख्वाबों के दाम

एक झोला ख्वाब लटका कर
घर घर भटकता रही हूँ।
लाखों चेहरे हज़ारो नाम,
मैं इकलौती सबकी परछाई हूँ !


आखों में नीदें है, बेचैनी, शिकवे, गिले,
कहीं डर, कहीं इंतज़ार, नहीं है तो बस ख्वाब।
खुदगर्ज़ अदा, बेअदब सी बदलती वफ़ा,
नहीं कोई बात जिसपे, कोई मर मिटने पे बेताब।

मै शायद बेवक़्त पोहोचा हूँ!
या फिर मेरे होने की वजह यही  है।
बस थोड़ी सी शिद्दत कुछ और,
वक़्त हालात और जगह  है।

मै अपनी सासों से एक तूफ़ान लाऊंगा
ऊचे दरख्तों के परखच्चे उड़ाऊंगा।
कर जाऊंगा ज़मी तिनको के नाम ,
यूँ बेचकर ले जाऊंगा मैं ख्वाबों के दाम.

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