शनिवार, 29 जुलाई 2017

समाज की प्रेमिका रेनेसाँ !

हे ! सुनो ग़ौर से बात मेरी
क्यों पकड़े हुए हो, बन्दूक, गांजा, सिगरेट, बीड़ी !
जब युवा पूरे समाज का प्राणदाता है,
क्यों अनपढ़, निकृष्ठ, स्वार्थी कोई, तुम्हारा भाग्य विधाता है !!

तुम सत्ता की सीढ़ी बनकर रह जाते
वो गद्दी चढ़ पीढ़ी दर पीढ़ी मेवा खाते!
उत्तेजित कर देने वाले भाषण देकर,
तुम्हारे जोश से नफा लेने को बहकाते

कब तक ले कर जियोगे म् का डर!
इस तरह हर सांस पे रहते हो मर !!
जब जब यवा समाज डर जायगा
तब तब मानवता की बढ़ती रहेगी  मृत्यु दर !!

तुम शक्ति ताकत स्फूर्ति के हो भण्डार!
 किस ब्रम्ह वर पर रावण करे अहंकार ?
खुदको सीढ़ियों में तब्दील ना होने दीजिये
अपनी सरज़मीं उनकी मेहफिल ना होने दीजिये

 अब अपने भाग्य के खुद बनो विधाता
बनो ऐसा के समाज कर सके तुमपर अभिमान!
मस्तक छेद करो स्वार्थ  ,जिसने किये चोरी से सुधा पान
समस्याएं मिटने का प्रयत्न करो, ना की उसमे योगदान !!

मैं इस हेतु कार्यरत हूँ
अपनी कलम से जितना समर्थ  हूँ !
पर मेरा योगदान व्यर्थ है जो तुम ना जागे
अब भी ग़र देशचेतना तुममें ना जागे !

दुष्टों से मुक्त सिंघासन तब तक नहीं होगा
 युवा जबतक  देशहित में समर्पित नहीं होगा
तुम्हारे सामर्थ पर कोई संदेह नहीं  है !
शिद्दत कितनी  देखना एहि है !!

 अभी तो टैबलेट, और समर्टफोने में घूरे पड़े  हो
व्हाट्सप्प और ट्विटर कर ठूसे पड़े हो !
समाज बुला रहा, कर रहा अब भी तुम पर भरोसा
लौटाओगे तुम ही उसको उसकी प्रेमिका रेनेसाँ !!




मैं भारती

कोई खींचता है दामन
कोई नोचता चेहरा मेरा !
मैं ग़ैरों से डर कर लौटी थी घर
ख़ौफ़ अब अपनों  से गहरा मेरा !!

मैं प्रतिरोध को उठती हूँ
देख अपनों का चेहरा टूटती हूँ !
जब अपने आँगन में आबरू ना सलामत
मैं गैरों के दामन में जगह ढूंढ़ती हूँ !!

मैंने क्या माँगा था ? थोड़ा सा सम्मान
उनके लिए भी थोड़ा सा जो मुझपे हुए कुर्बान!
और भाइयों ने ही नहीं बेटों ने भी,
मेरा सौदा किया बेच कर अपना ईमान !!

मेरी इज़्ज़त मेरे किस काम थी
अपनों का ग़ुरूर बनना मेरी शान थी!
वो अपनी हवस को ज़ादा तबज्जो दे गए
वो ये ना समझे, मैं तो उनकी ही पहचान थी !!
 

शनिवार, 15 जुलाई 2017

आओ सुभाष बुलाते है !

जब बहन बेहया होने लगे
भाई नियत से नंगे होने लगे
जब  ,डफली, ढोल, डमरू चीख सुनाते है
बाप के कंधे बेटियों के लाश रुलाते है।

तब जागो ज़मीर, आओ सुभाष बुलाते है।

जब जनवरी २६, या १५ अगस्त की रात तक
कुछ ही पल के लिए, देशभक्ति जस्बात हो !
जब गोमांस पर बवाल हो, देश प्रेम या राष्ट्रवाद सही, ऐसे सवाल हो
तब आप झूठे पत्तों  में झुकते भूखे बच्चो से मुँह फेर गुज़र जाते हैं |

तब अंदर झाको अपने, देखो शुभाष बुलाते है।

जब किसान के गले का फंदा  कसता जाये
जब गेहू महंगा और नेटवर्क फ़ोन का सस्ता पाए
जब सेंसेक्स की छलांगे ऊँची, और बेरोज़गारी धंदे का हाल सुनाते है।
जब भारत तोड़ने के गूंजते नारे, और हम दुबकके वन्देमातरम गाते है।

हमारी नपुंसकता पर क्रोधित हो, दे ललकार सुभाष बुलाते है।

 जब गणतंत्र एक छलावा, स्वीतंत्राता परिहास लगे,
जब शहीदों के घर से निकली अर्ज़ी, दौलत के आगे बकवास लगे
जब हेमराज की सरकटी लाश घर आये, हम चाइनीज़ बत्तियों से चिता सजाते है।
खुद अपनों की मृत्यु का कारन बनकर, हम सेल्फी लेते, कभी जेब टटोलते रह जाते है

तेयोढ़ियाँ  चढ़ जाती है  क्रोध से,  आखों में लेकर अंगारे देखो सुभाष बुलाते है।



अंधड़

 स्तब्ध है दिशाएं क्यों
वायु की गति थम गई ,
विराट हुई स्वप्निल आशाएं क्यों
क्यों नेत्र खगचक्षु पर जम गई।

क्या ये है अंधड़ के संकेत
क्या ये है परिवर्तन का प्रारम्भ कोई ?
या हो गया रंग रक्त का स्वेत
और नत मस्तक कर, पाल रहा मै भ्रम कोई ?

कुछ हिलडोल  इस स्तब्धता में
एक घटना का पद धर जाती है।
स्थिरता के प्रवाह को तोड़कर,
कभी कभी प्रतिकार कर जाती है।


शुप्त होती अनल ज्योति की
क्या अंतिम चेष्ठा है ये?
या म्रित्यु पर्यन्त जलने को विवश
अतृप्त असीमित तेष्ठा है ये ?

जीवन समर -- मै अर्जुन हूँ!


जीवन मनुज का एक समर है
प्रतिपक्ष हर पल अजर है |
मैं नित शंख उत्घोषित करता रण,
द्विपक्ष के वीर वीरगति का करते वरण |

 निज संबंधों की बलि देता मै अर्जुन हूँ !


धर्मयुद्ध का प्रतिबिम्ब प्रतीक्षण
तीव्रतर होता रहता ये रण |
वायु में धनुष टंकार गूंजता है
परिस्थितियाँ भारी कुछ ना सूझता है |

फिर भी गांडिव का मान रहेगा मै अर्जुन हूँ !


चक्रव्यूह की रचना नित्य करता है शत्रु पक्ष
विजयी वही हो सकता है, जिसके हाथ है दक्ष |
समाहित हो जाते है जो अभिमन्यु होते है
 निर्माण की नीव में कहीं अस्तित्व खोते हैं  |

मै विजयी हर क्षण यहाँ -- मै अर्जुन हूँ !

धर्म की रक्षा को प्रभु ने अवतार लिया
जगा विवेक उसका भी ,जो जाग कर सोते है |
 जो रथ धर ले  गिरधर  नंदिघोष हो जाये ,
श्लोक गीता के सुन, रथी सभी कर्मयोगी होते है |

मै नर, नारायण का दूत हर युग में लौट कर आता हूँ -- मै अर्जुन हूँ !


शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

ख्वाबों के दाम

एक झोला ख्वाब लटका कर
घर घर भटकता रही हूँ।
लाखों चेहरे हज़ारो नाम,
मैं इकलौती सबकी परछाई हूँ !


आखों में नीदें है, बेचैनी, शिकवे, गिले,
कहीं डर, कहीं इंतज़ार, नहीं है तो बस ख्वाब।
खुदगर्ज़ अदा, बेअदब सी बदलती वफ़ा,
नहीं कोई बात जिसपे, कोई मर मिटने पे बेताब।

मै शायद बेवक़्त पोहोचा हूँ!
या फिर मेरे होने की वजह यही  है।
बस थोड़ी सी शिद्दत कुछ और,
वक़्त हालात और जगह  है।

मै अपनी सासों से एक तूफ़ान लाऊंगा
ऊचे दरख्तों के परखच्चे उड़ाऊंगा।
कर जाऊंगा ज़मी तिनको के नाम ,
यूँ बेचकर ले जाऊंगा मैं ख्वाबों के दाम.

शत्रुस्थान

  भारत कब हारा किसी बाहरवाले से?
हमने खुद जीतकर दे दिया अपने हवाले से।
न वो जो सीमा के पार ऐठे हैं, न वो जो घुसबैठ की तलाश में,
दुश्मन अपनों में ज़ादा बैठे है, और हम तब्दील ज़िंदा लाश में ।

                                                        स्वार्थ जब राष्ट्रहित पे हावी हो  जाए ,
                                                        मन विभीषण, जैचंद भावी हो जाए।
                                                        तब खालिस्तान नारों में गूंजे,और सैनिक सर पाषाण,
                                                        कठोर निंदा और धन की ढेली, हाशिये पे बलिदान।

बुद्धिजीवी वो जो हमारी बुद्धि चर खाये ,
बाजार बनाकर द्वार, बेच अपना हम घर खाये।
आशा अमन की ओढ़ मुखौटा लूट रहा हिंदुस्तान,
बन्दर गांधी के आखें खोलो, देखो घर का आंगन शत्रुस्थान।