शनिवार, 21 मई 2022

हिन्द की रूह !

जैसे डूबता हुआ सूरज,

आसमान में लालीमा भर देता है।

बुझते हुए दीपक भी अपनी,

आभा से घर रौशन कर देता है।


ठीक उसी तरह जागती हुई हिन्द की रूह,

हर आवाज़ नारों में तबदील अब।

हर तरफ़ लोगों का हुजूम शामिल सब,

टूटने से पहले उसकी आँखें खुली तब।


जैसे झूठ का पर्दाफाश हुआ,

उम्मीदें टूटी, ऐतबार घटा।

गुस्सा उसकी भीड़ सा बना दिया,

मासूमों का जुर्मवालों पर हिसाब बना।


दिशाएँ नहीं दी गई, तब भी ताकत जहर है।

हर किसी पर ये अज़ाब, कहर है।

इस भट्टी में तप कर ही निखारना होगा,

अंकुरित होना है? बीज बन बिखरना होगा।


वक़्त ऐसे ही दौर से गुज़र कर बदलता है।

कुछ नया बनने से पहले, हर शय जलता है।

टूटते हैं ऊँचे दरख्त, तिनकों से चमन बनता है,

जैसे हर बार टूटता है हिन्द, फिर नया वतन बनता है।