जीवन यहाँ द्वापर सा नहीं सरल है,
कालकूट से कहिं अधिक गरल है !
मर्यादाएं ताक पर नहीं , पस्त हो चुकीं !
द्रौपदी स्वयं नग्न नाच में मस्त हो चुकीं !!
द्युत आजकल आए का साधन है!
लज्जा कूड़ेदान में, लोलुपता श्रृंगार प्रसाधन है !!
धर्मशास्त्र कहाते मिथ्याचरण की गाथा !
लम्पट यहाँ कृष्ण कहाए, व्यभिचारिणी राधा !!
राम जहाँ पत्नी उत्पीड़क, रावण चरित्र का धनी !
राहु आकाँक्षाओं का स्वामी, दुष्ट कहलाते शनी !!
हर पग चक्रव्यूह से घिरा, रण छल निरंतर है !
क्या अंतर, क्या बहार, सब कुरुक्षेत्र कहाँ अंतर है ?
पक्ष धर्म का यहाँ पड़ा पड़ा मार खा रहा !
अधर्म पक्ष युध्य से दूर बैठकर, दावतें उड़ा रहा !!
पहले समाज, फिर परिवार सब खोते चले जा रहे!
ज्योतिरसोम: तमोगमय हो, अस्तित्व से दूर होते जा रहे !!
ज्ञान गीता का बस बगल में दबा है !
काम पाखंड में खुद को खपा रखा है !!
चेतना जागे ना, थपकियाँ मार सुला देते हैं !
ईशर याद आये भूले बिसरे, दोगलेपन से भुला देते हैं !!
अब धर्म की स्थापना से, प्रलय ही उपचार बचा !
कर्त्तव्य की समझ गई, दंभाधीन अधिकार बचा !!
इन्द्रियों के सुख आनंद तक, मानवता की दृष्टि है!
द्वैत अद्वैत सब रहे धरे, सत्य केवल नश्वर सृष्टि है !!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें