विनती, स्तुति, विनय रख हारे !
शत्रु हमे नित् दिन संघारे !!
अपनी सहनशीलता त्यागो,
हिल्लोर उठाओ, निद्रा से जागो!!
समय समर का पुकार रहा है !
कहकर कापुरुष हमे धिक्कार रहा है !!
वर्चस्व की चेष्टा में कोई पग पसारता है !
अधर्म की स्थापना को, जग संघारता है !!
द्वेषानल में ध्रिताहुती देता कोई !
हर मतभेद का, द्वन्द का सदुपयोग कर लेता कोई !!
वो अपनों में रहकर, घर का भेदन करता है !
अपने ही सखा सम्बन्धियों का मस्तक छेदन करता है !!
अब सीमा के पर गई क्रोध की ज्वाला !
अपमानित हुई अब तो, हरिवंश की मधुशाला !!
रहो अब मूक दर्शक नहीं, शत्रु दहन करो !
समय आ गया रण चंडी का आवाहन करो !!
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