शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

मंथन

एक तरफ लोभ का दानव !
एक तरफ संक्रमित मानव ! !
एक तरफ पीड़ित जन भी  !
एक तरफ मेरा व्यथित मन भी  ! !

निदान को तैयार हम  !
संचार,  महेंद्रगिरी  सा बना स्तम्भ !  !
पीठ कुम्भ सा दिए न्याय भी  !
जनता  हुई वसुखी का पर्याय भी ! !

अब मंथा   जायेगा समाज समुद्र सा !
उथलेगा सबकुछ, छुद्र अतिचुद्र सा ! !
स्वयं हलाहल हुआ है प्रकट !
जीवन पर घनघोर है संकट ! !


शिव कृपा को नेत्र तरसते है !
मेरे, सामर्थ  हीनता पे नेत्र बरसते है ! !
ये विष पान करने की  किस्मे है क्षमता ?
देखना है, खुदको शिव रंग में कौन है रंगता ! !

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