शनिवार, 26 जनवरी 2013

धुँआ छटा

एक जंग मिली है जीने को !
ज़ख्म कई है सीने को !
न रोको इस रक्त को दो झड़ने !
ये जीवन है मेरा, मुझे दो लड़ने !  !

स्वार्थी धूर्त , घातक शोषक प्रतिपक्ष!
मेरे नेत्र-बाण में , वे हि है लक्ष ! !
समक्ष मुखौटे, इनके गिरते हैं, दो गिरने  !
यह मात्र आरम्भ है, प्रतिपक्ष से दो भिड़ने   !  !

कुछ तो अंग मेरा भी कटेगा !
जीत उसी की जो अंत तक डटेगा ! !
ना रोको मुझे, उनका हर दाव आज़माना है !
विजय मिली तो सही, या फिर वीरगति ही पाना है !  !

मै मर गया तो ना समझना शेष रण है !
हर जन्म में लड़ने का मेरा प्रण है !  !
मैं न रहा तो, जो लड़ना चाहे उसे दो लड़ने!
जीवन तो समर है, शान बस विजय या वीरगति वरन में !  !

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