मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

सवाल (शहीद के पिता की ओर से )

लिपटकर तिरंगे में वो आया
घर लौटने का उसने वादा निभाया।
बोझ काँधे पर है, गर्व से फूला सीना है।
आँखें नम है, आख़िर इसी नमी के साथ जीना है।


ख़बरें आम हैं, पड़ोसी ने सीज़फायर तोड़ा
उसने हमारे ५ मारे हमने मारे २०, नहीं छोड़ा।
सन ४८ से अब तक, गोलियाँ चलनी बंद हुई कब?
वो तोड़ता है जिसे हर रोज़ जो, वो सीज़फायर था कब?


हर साल दिवाली की मिठाई,
हर रमज़ान बाद, उन्हें ईद की बधाई,
व्यापार बढ़ाने को, अमन की आशा,
जुए में बैठ शकुनी से सदाचार की प्रत्याशा।

ये देशभक्ति के पीठ पर राजनीती के खंजर,
भाई- पड़ोसी बन बैठे है, कल के लूटेरे कंजर।
हासिल कुछ भी ना करने दिया, महिमा मंडित व्यर्थ हुए बलिदान।
धन्यवाद् में सर पे पत्थर, और बलात्कारी बताकर सम्मान।

ये सरहद भी चुनावी मुद्दा है, तभी तो अब तक ज़िंदा है!
तक्षशिला, हड्डपा से हिंलाज गवाकर, हम बस अयोध्या से शर्मिंदा है।
सूनी कोख़, बिछड़ी राखी, टी.र.पी की धनी पूछ रही, यही अमन का हाल है!
अमन नहीं, जंग नहीं तो क्या है ये? मेरी बूढ़ि कन्धों का यहि सवाल है !



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