कहीं पीपल, कहीं अमिया
कहीं छ्छपर का सीधा सदा गाँव
कहीं पसीने से तर -बतर तन !
कहीं AC में बैठक सियासत के दांव ! !
कहीं कोई चेहरा देता है राहों को ,
उसकी छालों से हरी हो चुकी पांव !
कहीं मुखौटो पे मुखौटा चढ़ाये
पूछता, मै कौन? बताओ ! !
कहीं खेतीं नावे, ढोती सवारी !
लहरों को चीरती अकेली पतवार ! !
कहीं किनारे से लाकर डुबोती !
ऐसी भी, है सूखी मझधार ! !
कहीं अंधेपन में धसती
लुटती हुई अधिकार!
कहीं कर्तव्यों से मुह मोड़ती,
अपना ही करती दुर्व्यवहार ! !
कहीं अश्रु से सिंचित,
तृप्ति की दिखाती प्रतिरूप !
कहीं सबकुछ करती स्वाहा
अतृप्त पिपाशा की अनल कूप ! !
क्यों कुत्सित, कलंकित
दरिद्र नग्नता सी कुरूप !!
फिर भी अलंकृत, विलासित
पापिष्ठ पापात्माओ का स्वरुप !!
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