जीवन मनुज का एक समर है
प्रतिपक्ष हर पल अजर है |
मैं नित शंख उत्घोषित करता रण,
द्विपक्ष के वीर वीरगति का करते वरण |
निज संबंधों की बलि देता मै अर्जुन हूँ !
धर्मयुद्ध का प्रतिबिम्ब प्रतीक्षण
तीव्रतर होता रहता ये रण |
वायु में धनुष टंकार गूंजता है
परिस्थितियाँ भारी कुछ ना सूझता है |
फिर भी गांडिव का मान रहेगा मै अर्जुन हूँ !
चक्रव्यूह की रचना नित्य करता है शत्रु पक्ष
विजयी वही हो सकता है, जिसके हाथ है दक्ष |
समाहित हो जाते है जो अभिमन्यु होते है
निर्माण की नीव में कहीं अस्तित्व खोते हैं |
मै विजयी हर क्षण यहाँ -- मै अर्जुन हूँ !
धर्म की रक्षा को प्रभु ने अवतार लिया
जगा विवेक उसका भी ,जो जाग कर सोते है |
जो रथ धर ले गिरधर नंदिघोष हो जाये ,
श्लोक गीता के सुन, रथी सभी कर्मयोगी होते है |
मै नर, नारायण का दूत हर युग में लौट कर आता हूँ -- मै अर्जुन हूँ !
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