भारत कब हारा किसी बाहरवाले से?
हमने खुद जीतकर दे दिया अपने हवाले से।
न वो जो सीमा के पार ऐठे हैं, न वो जो घुसबैठ की तलाश में,
दुश्मन अपनों में ज़ादा बैठे है, और हम तब्दील ज़िंदा लाश में ।
स्वार्थ जब राष्ट्रहित पे हावी हो जाए ,
मन विभीषण, जैचंद भावी हो जाए।
तब खालिस्तान नारों में गूंजे,और सैनिक सर पाषाण,
कठोर निंदा और धन की ढेली, हाशिये पे बलिदान।
बुद्धिजीवी वो जो हमारी बुद्धि चर खाये ,
बाजार बनाकर द्वार, बेच अपना हम घर खाये।
आशा अमन की ओढ़ मुखौटा लूट रहा हिंदुस्तान,
बन्दर गांधी के आखें खोलो, देखो घर का आंगन शत्रुस्थान।
हमने खुद जीतकर दे दिया अपने हवाले से।
न वो जो सीमा के पार ऐठे हैं, न वो जो घुसबैठ की तलाश में,
दुश्मन अपनों में ज़ादा बैठे है, और हम तब्दील ज़िंदा लाश में ।
स्वार्थ जब राष्ट्रहित पे हावी हो जाए ,
मन विभीषण, जैचंद भावी हो जाए।
तब खालिस्तान नारों में गूंजे,और सैनिक सर पाषाण,
कठोर निंदा और धन की ढेली, हाशिये पे बलिदान।
बुद्धिजीवी वो जो हमारी बुद्धि चर खाये ,
बाजार बनाकर द्वार, बेच अपना हम घर खाये।
आशा अमन की ओढ़ मुखौटा लूट रहा हिंदुस्तान,
बन्दर गांधी के आखें खोलो, देखो घर का आंगन शत्रुस्थान।
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