शनिवार, 29 जुलाई 2017

मैं भारती

कोई खींचता है दामन
कोई नोचता चेहरा मेरा !
मैं ग़ैरों से डर कर लौटी थी घर
ख़ौफ़ अब अपनों  से गहरा मेरा !!

मैं प्रतिरोध को उठती हूँ
देख अपनों का चेहरा टूटती हूँ !
जब अपने आँगन में आबरू ना सलामत
मैं गैरों के दामन में जगह ढूंढ़ती हूँ !!

मैंने क्या माँगा था ? थोड़ा सा सम्मान
उनके लिए भी थोड़ा सा जो मुझपे हुए कुर्बान!
और भाइयों ने ही नहीं बेटों ने भी,
मेरा सौदा किया बेच कर अपना ईमान !!

मेरी इज़्ज़त मेरे किस काम थी
अपनों का ग़ुरूर बनना मेरी शान थी!
वो अपनी हवस को ज़ादा तबज्जो दे गए
वो ये ना समझे, मैं तो उनकी ही पहचान थी !!
 

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